न वक्त रुकता है न मौजे ठहर जाती है
ज़िन्दगी रेत है हांथो से फिसल जाती है …
जुदाई का सबब सोच कर, रोता था अक्सर दिल
नए पत्तो की चाह में तो, शज़र भी सूखे गिरती है
मुकम्मल जहां की आस में, भटकता हु दर-ब-दर.
मेरी खोज न जाने क्यों,तुझपे आ कर रुक जाती है..
ज़ख्म, दर्द और आंसू ये सब बात है फिजूल
वक्त की मरहम हर ज़ख्म को भर जाती है
तुम जो कहती थी” किसी बात को गहराई से न सोचो विवेक”
जब सोचता हु जब गहराई से तब वो बात समझ में आती है
न आलम-ए-वस्ल, न मौसम-ए -हिज्र की जरुरत है हमें
की तेरे ज़िक्र भर से ही मेरी कलम चल जाती है…
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