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Sunday, December 5, 2010

ज़िन्दगी

न वक्त रुकता है न मौजे ठहर जाती है
ज़िन्दगी रेत है हांथो से फिसल जाती है …
          जुदाई का सबब सोच कर, रोता था अक्सर दिल
नए पत्तो की चाह में तो, शज़र भी सूखे गिरती है
मुकम्मल जहां की आस में, भटकता हु दर-ब-दर.
मेरी खोज न जाने क्यों,तुझपे आ कर रुक जाती है..
          ज़ख्म, दर्द और आंसू ये सब बात  है फिजूल
 वक्त की मरहम हर ज़ख्म को भर जाती है 
          तुम जो कहती थी” किसी बात को गहराई से न सोचो विवेक”
          जब सोचता हु जब गहराई से तब वो बात समझ में आती है
                   न आलम-ए-वस्ल, न मौसम-ए -हिज्र  की जरुरत है हमें
                   की तेरे ज़िक्र भर से ही मेरी कलम चल जाती है…

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