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Friday, December 6, 2013

इल्तेज़ा

दर्द दे, ज़ख्म दे, सजा ही दे
कुछ हूँ अब भी तेरा, जता ही दे

नज़रे न फेर यूँ देख कर तू मुझको
नहीं पसंद गर तुझे, महफ़िल से उठा ही दे

यूँ चुप रह के न बेचैनियाँ बढ़ा दिल की
मुहब्बत ना सही, शिकवे कर बद्दुआ ही दे

लम्हा-लम्हा बोझिल है, बेरुखी से तेरी
लबों को मुस्कान नहीं, जी भर के रुला ही दे

जागती आँखों में गर तू मिल नहीं सकती
ना जागूं कभी, नींद ऐसी सुला ही दे..
vivek