जब आखरी मर्तबा उनसे पूछा हमने,
"भुला पाओगे हमे"
तो उनके होठों से चंद अल्फाज़ नीकले
"याद रखना अब ज़रूरी तो नहीं "
तो शायद मुझे भी ये ही लगा की
हर दर्द को दीखाना ज़रूरी तो नहीं;
हर ज़ख्म को छुपाना अब ज़रूरी तो नहीं.
जाने कया मज़बूरी रही होगी उसकी
सब को ये बताना अब ज़रूरी तो नहीं.......
उनके हाथों मे हीना लगाना ज़रूरी लगा सबको
पर मेरे ज़ख्मों पर मरहम लगाना अब ज़रूरी तो नहीं............
न जाने आज दर्द,दर्द को देख कर घबरा गया
उनके आंसुओ को पोंछने सारी कायनात आगे बड़ी
पर मेरे आंसुओ को पोंछना अब ज़रूरी तो नहीं..........
उनको वीदा करने सारा हुजूम उमड़ पड़ा
पर मुझे रुखसत करने के लीये चार कांधे भी अब ज़रूरी तो नहीं....
उनको इस dil से नीकाल पाना मुमकीन तो नहीं
पर कीसी और शक्स को इस dil में बसाना अब ज़रूरी तो नहीं...
उनकी काजल वाली आँखों को भुला दूँ हो नहीं सकता
पर कीसी और की आँखों की तारीफ करना अब ज़रूरी तो नहीं..
मेरे जज्बतात टूट के बीखर गए
उनको फीरसे जोड़ पाना अब ज़रूरी तो नहीं..
पर ऐ-दोस्त...
ये वक़्त हर मोड़ पर कहता है ;हर चौक पर कहता है
..की उसके बीना भी ये ज़िंदगी जीना
अब ज़रूरी तो नहीं
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